Saturday, December 28, 2013

कैफियत

कभी दिल्ली के चौड़े रास्तों के बीच उगते पौधों को देखा है? गुज़रते वाहनों के धूल और धुएं से लथपथ, शिथिल, निर्जीव, काहिल और न जाने क्या क्या हो जातीं हैं। किसी उगते पौधे को स्वास्थ्य होने के लिए खुली हवा, प्यार, पर्याप्त मात्र में खाद आदि कि आवश्यकता होती है।  दिल्ली ही क्यों किसी भी शहर में रास्तों के दोनों तरफ या बीच में उगते हुए पौधों कि ऐसी ही दशा होती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि मैं कोई ऐसा ही पौधा हूँ। धूल और धूएं से काहिल, शिथिल। धूल शायद तुम्हारे चिंतन कि, और धुँआ तुम्हारे मन के निष्क्रिय कारखाने की।  धुँआ शायद तुम्हारे किंकर्त्तव्यविमूढ़ता कि भी है।  चतुर्दिशाओं के बाजे गाजे और तुम्हारे मन के काल्पनिक धूम धडाके।  कभी किसी का बाजा बज उठता है और खुल जातीं हैं तुम्हारे  कल्पनाओं का विशाल भण्डार!  उन घटनाओं कि कल्पना करने लगते हो जो वास्तव में होते ही नहीं।  ऊपर से तुम उन काल्पनिक चरित्रों, पात्रों, और घटनाओं पर विश्वास करने लगते हो।

हर किसी के विश्वास, आशा उसके अपने होते हैं।  उन विश्वास और आशाओं में सबको लपेटा नहीं जा सकता।  जब कोई लिपटता नहीं तो उसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि वो धोखेबाज़ है! धोखा तो तब होता, जब कभी कोई इस बात का वाद करता कि कुछ भी हो जाए, वो उसके वास्तव और तुम्हारे कृत्रिम जगत में कोई अंतर नहीं रखेगा।

वास्तव क्या है और कृत्रिम क्या है, इसके सम्बन्ध में बहुत अलग अलग राय पंडितों ने दी है। कभी यह नहीं कहा जा सकता है मेरा वास्तव सत्य है और तुम्हारा वास्तव कृत्रिम।  कभी यह नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा मानना सत्य है और मेरी सोच गलत। चिरकाल से सनातन धर्म के संस्कार खुली विचारधारा के हैं।  कभी नहीं कहते कि यह मना है, वो मना है।  हाँ! अनेक वस्तुओं, पदार्थों के गुणों कि चर्चा अवश्य पाये गए हैं। यह मना है, वो मना है ऐसा मात्र निम्न स्तरीय विचारधारा के समाजों का परिचायक है।  बंद घरों या कमरों में रहने से विचार कभी खुले नहीं हो सकते।

तुम बारम्बार कहते हो यह न करो, वो न करो। कभी कभी तो तेज़ सांसें चलने पर भी तुम्हारे सवाल खड़े हो जाते हैं।  हो सकता है मेरी सांसें तेज़ ही चलती हों! या फिर हो सकता है कि वर्जिश का कार्यक्रम चल रहा हो। कुछ भी हो, कैसा भी हो, कैफियत मांगने लगते हो! ऐसे कैफ़ियतों कि आशाओं से बारम्बार घायल क्यों करते हो? एक बार में ही बोल दो कि मर जाओ!  जान छूटे तुम्हारी! और मेरी भी!

--निशा

1 comment:

Kerry Schultz said...

Its really interesting to read the way you have compared yourself with wildest plant which grow over the roads of Delhi.I can understand that you are going through a tough time but this shall pass too.