तुम कहते हो मैं आज़ाद हूँ, एक पंछी कि तरह, पर जब भी उड़ने कि कोशिश की तुमने तो मेरे पर ही काट लिए! न! वह पर मेरे पीठ पर नहीं उगे थे। वह तो मेरे ह्रदय में थे, अब सोचो काट दिए तो कितना दर्द हुआ होगा। अरे, तुम बड़े होकर दिल से खेलते हो? मैं तो सोचता था कि यह सिर्फ कमीनों का काम है!
कोई कमीना कर्म से होता है, कोई सोच से। पर मेरे पर काटने का जो कमीनापन तुमने किया वह लाजवाब है। पहले कहा "उड़! चिड़िया उड़!" फिर जब चिड़िया उडी तो कुशब्दों के वाण छोड़ दिए। नन्ही चिड़िया अब क्या करे? वो कहते हैं न अंग्रेजी में "बैक टू स्क्वायर वन!", वही हाल किया। अरे यही सब करना था तो पहले बता देते?
यह जो चिड़िया उड़ वाला खेल होता है न, बड़ा निराला है। कोई गलती करता है तो मार खानी पड़ती है। पर कुछ कलाकारी से उससे बच भी सकते हैं। ह्रदय को थप्पड़ पड़ने पे बचने कि उम्मीदें कम रहती हैं। पर यह तुम्हे कौन समझाए? तुम अपने अलावा किसी के सम्बंध में नहीं सोचते, यह तो मुझे अब जा के पता चला है!
भारत देश में अनेको कुसंस्कार म्लेच्छ जातियों द्वारा लाया गया है। वो तो सुधर गए हमें देखकर! पर हम ने उनकी देखा-देखी करनी शुरू कर दी। और तुमने तो पराकाष्ठा को पार कर दिया! सोच इधर कि, काम म्लेच्छों के! कहते हो मैं आज़ाद हूँ, पर हूँ नहीं। कहते हो कि तुम्हे बहुत अनुभव है, पर बातें सुनकर ऐसा लगता नहीं!
म्लेच्छ जातियां कहती हैं कि आज़ादी मना है। बस मना है! कोई अनसुनी करता है तो सूली पर चढ़ा देते हैँ। तुम कहते हो कि मैं आज़ाद हूँ और फिर सूली पे चढ़ा देते हो! अरे इंसान कहाँ जाए? तेल लेने?
आजकल हर रोज यही खुद को आईने में देखकर सोच रहती है - "इतना करके क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लु?" कह दो कि सपने मत देखो, सोचना बंद करो, किताबें मत पढ़ो, अरे और तो और नौकरी भी मत करो! अरे कह दो कि ज़िंदा भी मत रहो। नहीं तो मेरे पास दो ही विकल्प हैं: या तो कांचा चीन्हा बनो, या फिर कांच के सपने लेकर बैठे रहो, निठल्ले!
--निशा
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